कोई कुछ भी कहे भले, कोई कुछ समझे
कोई कुछ भी कहे भले, कोई कुछ समझे
चिंतनशील मनीषों ने राह चुनी समझे बूझे
दीमक दल सी कुरीतियाँ, खोखला कर रहीं थी समाज जब
रत रहे अनवरत जीवन भर, मिला न सार्थक हल जब तक
पथ था कंटकाकीर्ण दुर्गम, धाराएं प्रतिकूल बहीं
संकल्प भरे, खोजे विकल्प, मानी न कभी भी हार कहीं
छोटे राज्यों का जन शोषण, नारी को डसती सती प्रथा
सूदखोर के ऋण से दुखती, भूमिहरों की दुसह व्यथा
बाल विवाह का भरकम बोझा, लदा हुआ कच्चे कन्धों पर
या फिर काले धंधों में, सराबोर वचपन के कर
अटल रहे अपने पथ पर,जब तक न खुले धागे उलझे
कोई कुछ भी कहे भले, कोई कुछ समझे
श्रीप्रकाश शुक्ल
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