बाद दीपावली के दिये ये बुझे
श्री राम लौटे ,खुशियां बटीं, दिन चार तक ही ये दीपक पुजे
सीता को घर से निकाला गया, बाद दीपावली के दिए ये बुझे
सदियों से अनुभव यही तो रहा, सुख दुःख का मौसम बदलता रहा
हालात का दास मानव रहा, जैसा ढाला गया, वैसा ढलता रहा
उद्धरण और भी हैं अनेकों भरे, इस युग में यही तो प्रमुख रीति है
जब तक न हो स्वार्थ की पूर्ती, झूठी ओछी मुखोटे भरी प्रीति है
गड़ी फांस निकले या माला पड़े , बाद उसके बदलते रंग ढंग दिखे
जो सम्बन्ध ऊंचे महल से लगे, रेत की नींव पर सब ही पाये टिके
जैसी हैं हम प्रजा, वैसा राजा मिले, सियासत का भी अब बुरा हाल है
थोथे वादों, प्रलोभन से झोली भरें, छल कपट से भरी पूरी हर चाल है
लोग गफ़लत में हैं, आयेगे दिन ख़ुशी के, दीपावली से भरी रात होगी
सुख चैन से सब का गुज़रेगा जीवन, सद्भाव की सबको सौगात होगी
श्रीप्रकाश शुक्ल
(२)
बाद दीपावली के दिए ये बुझे
जल गए दीप इक बार जो प्रेम के, ध्यान रक्खें कभी ज्योति घटने न पाये
कितनीं भी हों आंधियां दुर्विजित, दीप की हर शिखा नूर भर जगमगाये
प्रगति पथ पै बढ़ते कदम देखकर, दुश्मनों के ह्रदय तो अकारण जलें
वो तो चाहें यही और मनाते भी हैं, बाद दीपावली के दिए ये बुझें
सदियां गयीं व्यर्थ लड़ते लड़ाते, बात ये अब सभी के समझ आ गयी
मिल के रहने के परिणाम होते सुखद, अंतत: नीति अपनी सहज भा गयी
अर्ज़ छोटा मेरा,पर जगत जानता, ज्ञान विज्ञानं की खान, हैं हम असीमित
खोज मेरी सदा मानसिकता निखारे, रक्खी नहीं सौख्य साधन पै सीमित
ये दीपावली जो कि अब मन रही, इसमें दीपक नहीं जो स्वयं बुझ सके
इनमें ज्योति जले चंचला की सतत, जिसको कोई भी मारुत बुझा न सके
ज्योति ऐसी ही जग में जलाएंगे हम, भावना अविहित कोई दिल में न आये
बाद दीपावली के दिए ये बुझे, खयाल ऐसी कभी कोई पलने न पाये
श्रीप्रकाश शुक्ल
(३)
बाद दीपावली के दिए ये बुझे
आयी दीपावली दीप घर घर जले
दीप जलते हुए कितने लगते भले
सोचो समझो सभी काम अच्छे करो
दीप दे ना धुंआ, दूसरों को खले
बाद दीपावली के दिए ये बुझे
बात कुछ तो हुयी जो गए थे छले
जो आज उठता गरजता दिखे
अधबुझा सा रहे ,जोश निश्चित ढले
सृजन काव्य "श्री" कोई दुष्कर नहीं
चोखी संवेदना जो ह्रदय में पले
श्रीप्रकाश शुक्ल
(४)
बाद दीपावली के दिये ये बुझे
बाद दीपावली के दिए ये बुझे, रातरानी सिमट कर के मुरझा गयी
चंहु ओर घर में धुंआ भर गया, सारे अम्बर में काली घटा छा गयी
पडोसी ने ना पाक चालें चलीं, घुसपैठिये भेज सड़कों पै बम रख दिये
मौज मस्ती मनाते वो नादान बालक,प्रियजन हमारे जुदा कर दिए
जगाया जो सोते हुए सिंह को, ठीक लें वो समझ, खैरियत अब नहीं
उनके घर में ही घुस हाल पूछेगे हम,मुंह छुपाने को पाएं न कोना कहीं
धैर्य धारण की होती है सीमा कोई, ऐसी सीमा सभी पार हम कर चुके
पाठ अब मित्रता का पढ़ाना पड़ेगा, ये शालीनता थी जो अब तक रुके
था चाहा यही वो मनायें दीवाली, दिये जिसके घर घर को रौशन बनायें
तान रक्खे जहाँ तार काँटों भरे, वहाँ पंक्ति दीपों की मिल कर सजायें
मिलन ईद और जश्न दीपावली का,खुले दिल से यदि साथ में मन सके
चाहे अम्बर में कितने ही तूफां उठें, दीप दीपावली का कोई ना बुझे
श्रीप्रकाश शुक्ल
(५)
बाद दीपावली के दिए ये बुझे
आयी दीपावली झूम उट्ठे सभी, हर्ष उल्लास की कोई सीमा नहीं
एक दूजे से मिल प्रतिनन्दन करें, अनबन की चहरे पै रेखा नहीं
सब की दुआ भाई चारा रहे सब सलामत रहें सभी फूलें फलें
कोई अकेला क्यों कर जले, हो जलना तो साथ मिलकर जलें
चाहते सब यही ये नज़ारे ये खुशियां हमेशा हमेशा को ठहर जायें
प्रेम के पुष्प जो आज मन में खिले, खिलते रहें, मुरझा न पायें
अमावस भी जीवन की ऐसी रहे जिसमें चमक पूर्णिमा जैसी हो
दीप दीपावली के कभी न बुझें चाह तूफानों की चाहे कैसी भी हो
बाद दीपावली के दिए ये बुझे, क्यों बुझे, सोचना अब ज़रूरी हुआ
क्यों सूखी रही वर्तिका प्रेम की,या सद्भाव का तेल कम क्यों हुआ
हवायें चलीं घर में विंध्याचली या पश्चिम से आया भयंकर तूफां
कारण रहा चाहे कोई भी हो हमें रहना सजग जिसको जाने जहाँ
श्रीप्रकाश शुक्ल
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