Monday 25 April 2016

पाषाण में भी प्राण

सोये हुए क्यों? कवि उठो ! दर्प को दर्पण दिखाओ
नैराश्य ओढ़े भूमि गत जो, हाथ दे उनको उठाओ  
स्वार्थ की संकीर्णता में, इंसानियत जो आज भूले 
झकझोर कर उन पशु सरीखे मानवों में प्राण लाओ 

क्यों धार कुंठित है कलम की वेदना लिखती नहीं 
है कलंकित मानसिकता फिर भी क्यों दिखती नहीं 
देश पर था गर्व जिनको आज क्यों निष्प्राण दिखते 
फूंक दे पाषाण में भी प्राण जो, संवेदना ऐसी जगाओ 

है देश में भीषण परिस्थिति, आज तरुणाई भ्रमित  
झूठे छलावे में उलझ, समझे न अपना हित अहित 
हो दुखित भूषण औ दिनकर, खीजकर  पैगाम देते   
शब्द शर में गर्जना  भर भ्रान्ति की तुम भित्ति ढाओ 

श्रीप्रकाश शुक्ल 

 

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